26 दिस॰ 2024

Ancient Ayurvedic knowledge and the making of the ‘Original’ Chyavanaprash "Editorial"

WOLK: Ancient Ayurvedic knowledge and the making of the ‘Original’ Chyavanaprash

WOLK: प्राचीन आयुर्वेदिक ज्ञान और ‘मूल’ च्यवनप्राश का निर्माण

आयुर्वेद भारत की प्राचीन चिकित्सा प्रणाली है, जिसमें शरीर, मन और आत्मा के बीच सामंजस्य स्थापित करने का विज्ञान सन्निहित है। यह न केवल बीमारियों के उपचार का साधन है, बल्कि संपूर्ण स्वास्थ्य का संवर्धन करने वाली जीवनशैली है। आयुर्वेद के इस गहन ज्ञान का उद्गम वेदों से हुआ है, जिन्हें मानव सभ्यता के सबसे प्राचीन ग्रंथ माना जाता है। इन ग्रंथों में उल्लेखित ऋषि-परंपरा में चारक, सुश्रुत, धन्वंतरि और च्यवन ऋषि जैसे महान चिकित्सकों ने मानव कल्याण के लिए अमूल्य योगदान दिया।

इस संदर्भ में यदि हम च्यवनप्राश की बात करें, तो यह न केवल एक आयुर्वेदिक उत्पाद है, बल्कि हजारों वर्षों की परंपरा और ज्ञान का परिणाम है। आज यह बाजार में एक सामान्य स्वास्थ्यवर्धक पदार्थ के रूप में उपलब्ध है, लेकिन इसके मूल निर्माण में गहन आयुर्वेदिक ज्ञान और वेदों का अध्ययन आवश्यक है। जो लोग आयुर्वेद और वेदों का मूल ज्ञान नहीं रखते, उनके लिए ‘मूल’ च्यवनप्राश बनाना असंभव है।


च्यवनप्राश की उत्पत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:- 

च्यवनप्राश का नाम च्यवन ऋषि से लिया गया है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, च्यवन ऋषि अत्यंत वृद्ध हो गए थे, और उनकी शक्ति तथा त्वचा की चमक नष्ट हो चुकी थी। उनके लिए अश्विनी कुमारों ने एक विशेष औषधि तैयार की, जिससे उनकी जवानी और ऊर्जा पुनः लौट आई। यही औषधि च्यवनप्राश के नाम से प्रसिद्ध हुई।

आयुर्वेद के अनुसार, च्यवनप्राश को शरीर के बल, बुद्धि और आयु बढ़ाने के लिए बनाया गया था। इसे खासतौर पर रसायन (anti-aging) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। ‘चरक संहिता’ और ‘सुश्रुत संहिता’ जैसे प्राचीन ग्रंथों में च्यवनप्राश के गुणों और इसके निर्माण की विधि का विस्तार से वर्णन मिलता है।


‘मूल’ च्यवनप्राश के निर्माण में आयुर्वेद और वेदों का महत्व:- 

च्यवनप्राश बनाने के लिए आयुर्वेदिक सिद्धांतों का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है। आयुर्वेद केवल औषधियों के नाम और गुणों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक विज्ञान है, जो प्रकृति, शरीर और ऊर्जा के संतुलन को समझने की कला सिखाता है। च्यवनप्राश बनाने के लिए जिन सामग्रियों और प्रक्रियाओं का उपयोग किया जाता है, वे केवल आयुर्वेदिक और वैदिक परंपराओं में निहित हैं।

1. सामग्रियों का चयन:- 
च्यवनप्राश में प्रयोग की जाने वाली सामग्रियों में आंवला, घी, शहद, गुड़, विभिन्न जड़ी-बूटियां और मसाले शामिल हैं। यह सभी पदार्थ प्राकृतिक और औषधीय गुणों से भरपूर होते हैं।

आंवला: मुख्य घटक है, जो विटामिन सी और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होता है। यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सहायक है।

दशमूल: दस प्रकार की औषधीय जड़ों का मिश्रण, जो शारीरिक थकावट और वात दोष को संतुलित करता है।

घी और शहद: ऊर्जा प्रदान करने वाले और औषधियों के प्रभाव को बढ़ाने वाले माध्यम हैं।


2. निर्माण प्रक्रिया:- 
च्यवनप्राश बनाने की प्रक्रिया में हर चरण आयुर्वेदिक सिद्धांतों के अनुसार किया जाता है। इसमें दवाओं को सही अनुपात में मिलाना, उचित तापमान पर पकाना, और औषधियों की ऊर्जा को संरक्षित करना शामिल है।

• तापमान को नियंत्रित करने का विशेष ध्यान रखा जाता है, क्योंकि अधिक तापमान औषधियों के गुणों को नष्ट कर सकता है।

• औषधियों का संयोजन ‘संगति-कारण’ के सिद्धांत पर आधारित है, जिससे सभी सामग्रियां मिलकर एक-दूसरे के गुणों को बढ़ाती हैं।


आधुनिक युग में ‘मूल’ च्यवनप्राश की कमी:- 

आज बाजार में उपलब्ध अधिकांश च्यवनप्राश केवल व्यावसायिक लाभ के उद्देश्य से बनाए जाते हैं। इनमें प्रयुक्त सामग्रियां और निर्माण प्रक्रिया अक्सर प्राचीन आयुर्वेदिक विधियों से मेल नहीं खाती।

1. गुणवत्ता की कमी:- 
अधिकांश उत्पादों में उपयोग की जाने वाली सामग्री प्राकृतिक नहीं होती, और उनमें कृत्रिम स्वाद और संरक्षक मिलाए जाते हैं।


2. वैज्ञानिक समझ का अभाव:- 
जो लोग आयुर्वेद और वेदों का गहन अध्ययन नहीं करते, वे च्यवनप्राश बनाने की प्रक्रिया को समझ ही नहीं सकते। ‘मूल’ च्यवनप्राश में सामग्रियों की गुणवत्ता, मात्रा और निर्माण प्रक्रिया का सही संतुलन अत्यंत आवश्यक है।


3. परंपरा से भटकाव:- 
च्यवनप्राश का निर्माण केवल एक व्यावसायिक उत्पाद बनाने तक सीमित हो गया है। परंपरागत ज्ञान और वैदिक सिद्धांतों की उपेक्षा के कारण इसकी औषधीय और स्वास्थ्यवर्धक क्षमता घट गई है।


‘मूल’ च्यवनप्राश का निर्माण: आज की आवश्यकता:- 

च्यवनप्राश को सही मायने में आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से तैयार करना आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इसके लिए निम्नलिखित पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है:

1. प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन:- 
‘चरक संहिता’, ‘सुश्रुत संहिता’, और अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों में च्यवनप्राश की निर्माण प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। इन ग्रंथों का गहन अध्ययन करके ही ‘मूलच्यवनप्राश बनाया जा सकता है।

2. प्राकृतिक और जैविक सामग्री का उपयोग:- 
प्राकृतिक और जैविक सामग्रियों का उपयोग सुनिश्चित करना चाहिए। रसायनों और कृत्रिम संरक्षकों से बचाव करना अनिवार्य है।

3. आयुर्वेदिक विशेषज्ञों की भूमिका:- 
आयुर्वेदिक चिकित्सक और विद्वान इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उनके अनुभव और ज्ञान से सही विधि का पालन संभव है।

4. शोध और नवाचार:- 
च्यवनप्राश के पारंपरिक निर्माण को आधुनिक विज्ञान के साथ जोड़कर इसे और अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है।


निष्कर्ष :- 

च्यवनप्राश केवल एक औषधि नहीं, बल्कि आयुर्वेदिक ज्ञान और वैदिक परंपरा का प्रतीक है। इसे बनाने के लिए न केवल सामग्री और विधि का ज्ञान आवश्यक है, बल्कि वेदों और आयुर्वेद की गहन समझ भी अनिवार्य है।

जो लोग इस मूल ज्ञान से वंचित हैं, उनके लिए ‘मूल’ च्यवनप्राश बनाना असंभव है। च्यवनप्राश का सही निर्माण तभी संभव है, जब हम अपने प्राचीन ऋषियों की परंपरा और ज्ञान को सम्मानपूर्वक अपनाएं। केवल तभी हम इस अमृत समान औषधि को उसकी वास्तविक शक्ति और प्रभाव में पुनः स्थापित कर सकते हैं।



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