ऊँ हनुमते नमः
पुराणों में इस कथा का उल्लेख है कि अश्वमेघ यज्ञ के पूर्ण होने के पश्चात श्री राम ने एक बड़ी सभा का आयोजन किया जिसमें सभी राजाओं को उसमें आमंत्रित किया गया।
सभा में आए नारद जी के भड़काने पर राजा ययाति ने भरी सभा में ऋषि विश्वामित्र को छोड़कर सभी को प्रणाम किया तो ऋषि विश्वामित्र गुस्से से भर उठे और उन्होंने राम से कहा कि अगर सूर्यास्त से पहले श्रीराम ने उक्त राजा को मृत्यु दंड नहीं दिया तो वो राम को श्राप दे देंगे।
श्राप से भयभीत होकर श्रीराम ने उस राजा को सूर्यास्त से पहले मारने का प्रण ले लिया।
श्रीराम के प्रण की खबर पाते ही राजा ययाति भागा-भागा नारद जी के पास गया तो उन्होने उसे माँ अन्जनि के पास जाने को कहा तब वह हनुमान जी की माता अंजनी के पास गया और पूरी बात बताए बिना उनसे प्राण रक्षा का वचन मांगा।
माता अंजनी ने हनुमान जी को राजा ययाति की जान बचाने का आदेश दिया। हनुमान जी ने श्रीराम की कसम खाकर कहा कि कोई भी राजा का बाल भी बांका नहीं कर पाएगा।
लेकिन जब राजा ने बताया कि श्रीराम ने ही उन्हें मारने का प्रण किया है तो हनुमान धर्म संकट में फंस गए। हनुमान के सामने धर्म संकट खड़ा हो गया कि वो राजा के प्राण कैसे बचाएं।
अगर राजा को मौत मिलती है तो माता का दिया हुआ वचन पूरा नहीं हो पाएगा। अगर राजा को बचाया तो श्री राम का प्रण पूरा नहीं हो पाएगा और उन्हें शाप मिलेगा।
उलझन में फंसे हनुमान जी को एक युक्ति सूझी उन्होने ययाति से सरयू तट पर जाकर राम नाम जपने के लिए कहा और स्वयं सूक्ष्म रूप में राजा के पीछे छिप गए।
जब श्री राम राजा ययाति को खोजते सरयू तट पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि राजा ययाति राम-राम जप रहा है ! राम जी ने सोचा,अरे ! ये तो मेरा भक्त है, मैं कैसे इस पर बाण चला सकता हूँ।
श्री राम महल को लौट गए और विश्वामित्र से अपनी दुविधा कही विश्वामित्र अपनी बात पर अड़े रहे और श्रीराम को फिर से राजा के प्राण लेने के लिए सरयू तट पर लौटना पड़ा।
सारा राज्य देख रहा था कि कैसे श्रीराम दुविधा में फंसे हैं। एक तरफ राजा राम नाम जप रहा है और श्रीराम अपने ही एक भक्त को मारने के लिए बाध्य हैं।
सभी सोच रहे थे कि ऐसे वक्त में हनुमानजी को श्रीराम के साथ होना चाहिए था। लेकिन हनुमान जी थे कहाँ, वो तो अपने ही आराध्य के विरुद्ध सूक्ष्म रूप से एक धर्मयुद्ध का संचालन कर रहे थे।
हनुमान जानते थे कि राम-नाम जपते हुए राजा को कोई भी नहीं मार सकता, खुद मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी नहीं।
राम जी जब फिर से सरयू तट लौटे तो राजा को मारने के लिए शक्ति बाण निकाला लेकिन तब तक राजा हनुमान जी के कहने पर सिया-राम सिया-राम जपने लगा।
राम जी जानते थे कि सिया-राम जपने वाले पर शक्तिबाण असर नहीं करता वो बेबस हो गए और महल को लौट पड़े। उधर विश्वामित्र उन्हें लौटा देखकर श्राप देने को उतारू हो गए और राम को फिर सरयू तट पर जाना पड़ा।
इस बार राजा हनुमान जी के इशारे पर जय सियाराम जय-जय हनुमान गा रहा था राम ने सोचा कि मेरे नाम के साथ-साथ ये राजा , शक्ति और भक्ति की जय बोल रहा है ऐसे में मेरा कोई अस्त्र इसे नही मार पाएगा।
इस संकट को देखकर श्रीराम को मूर्छा आने लगी तो अयोध्या के साधु संतों में खलबली मच गई।
तब ऋषि वशिष्ठ ने ऋषि विश्वामित्र को सलाह दी कि राम को इस तरह संकट में नहीं डालना चाहिए।
उन्होंने कहा कि राम चाह कर भी राम-नाम जपने वाले को नहीं मार सकते क्योंकि जो बल राम के नाम में है वो स्वंय श्रीराम में भी नहीं है संकट बढ़ता देख कर ऋषि विश्वामित्र ने राम को संभाला और अपने वचन से मुक्त कर दिया।
मामला संभलते देखकर राजा के पीछे छिपे हनुमान वापस अपने रूप में आ गए और श्रीराम जी को प्रणाम किया।
तब श्रीराम जी ने कहा कि हनुमान तुमने इस प्रसंग से निश्चित किया है कि भक्त की शक्ति हमेशा आराध्य की ताकत बनी है और सच्चा भक्त हमेशा भगवान से बड़ा ही रहेगा।
राम नाम की ज्योतिका,भरती हृदय प्रकाश
राम भक्त की लाज को, हरपल रहते संग ।
!! जय श्री राम !!
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